श्रंगार - प्रेम >> हैलो मां हैलो मांरोशन प्रेमयोगी
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विद्रोही बेटे के कहानी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने विद्रोही स्वभाव के नायक का चित्रण किया है।
नायक सीमांत विद्रोही स्वभाव-वश ही कम्पयूटर इंजीनियर होने के बावजूद
चित्रकला के क्षेत्र में रुचि रखता है। सीमांत को जब यह पता चलता है कि
उसकी जन्मदात्री मां कोई और है तब उसके मन में अपने पिता के प्रति
वितृष्णा जन्म ले लेती है। वह इसी उग्र विद्रोही स्वभाव की प्रतिमूर्ति
में परिवर्तित हो जाता है। इस उपन्यास में चित्रकार की कोमल भावनाएं रखने
वाले नायक के मन में अपनी जन्मदात्री मां से मिलने की तड़प व चाहत का
अत्यन्त मार्मिक चित्रण है।
‘‘मैं पाट नहीं हूं और न तुम गेहूं हो। यदि कहना है तो अपने को ढेंकुरी में रखा धान कहो, जिसे पहरुआ बना बेटा कूट रहा है।’’
‘‘जिस सच को सुनाने से पहले आप मुझे कमजोर बता रहे हैं बाप जी ! उस सच की प्रतीक्षा में जाने कितने रात-दिन मैंने इंटरनेट खोलकर काटा है। या फिर कूची चलाकर। सुना दीजिए उस सच को ! जिस सच को आप पिता होकर जी चुके हैं उस मैं बेटा होने के नाते सुनने की ताब रखता हूं।
‘‘मैं पाट नहीं हूं और न तुम गेहूं हो। यदि कहना है तो अपने को ढेंकुरी में रखा धान कहो, जिसे पहरुआ बना बेटा कूट रहा है।’’
‘‘जिस सच को सुनाने से पहले आप मुझे कमजोर बता रहे हैं बाप जी ! उस सच की प्रतीक्षा में जाने कितने रात-दिन मैंने इंटरनेट खोलकर काटा है। या फिर कूची चलाकर। सुना दीजिए उस सच को ! जिस सच को आप पिता होकर जी चुके हैं उस मैं बेटा होने के नाते सुनने की ताब रखता हूं।
‘यह उपन्यास किताबों, फूलों, बच्चों तथा मां किशोरी देवी सहित
उन
लोगों को समर्पित जिनका निश्चल सौन्दर्य मुझे लिखने व लड़ने की प्रेरणा
देता है.....’
हैलो मां
1
सीमांत अपने घर में है....कमरा अन्दर से बन्द है। अन्दर मेज पर रंगदानी,
रंग ट्यूब पानी व तेल के कप और कुछ भीगे बुरुश बिखरे पड़े हैं.....मेज पर
ही कुछ स्केच भी रखे हैं......एक पर शीर्षकनुमा लिखा है,
‘इक्कीसवीं
सदी में भारत’। दरअसल इन्हीं स्केचों के आधार बनाकर सीमांत वह
तैल
चित्र तैयार करने में जुटा हुआ है जो इस समय स्टैंड पर टंगा है और जिसमें
सीमांत खोकर रह गया है।
चित्र में गांधी हैं.....जिनके बायें कन्धे पर कुर्ता धोती पहने एक मासूम बालक बैठा है, दूसरे को वे कनियां ले रखे हैं। गांधी के बायें हाथ में दो घुटारी तख्तियां और बस्ते भी हैं जिनको देखने से वे बच्चों को प्राथमिक विद्यालय ले जा रहे लगते हैं। गांधी प्रफुल्लित मन से ठीक सामने रास्ते को देख रहे होते हैं, जबकि एकाग्रचित्त सीमांत उनकी कमर में टंगी घड़ी को, जिसे छू पाने के लिए कनियां वाला बच्चा झुका जा रहा होता है। घड़ी अभी अधूरी होती है, सूइयों के बिना घड़ी देखने में उतनी ही अधूरी लगती है जितना घड़ी के बिना अधूरा लगता गांधी का व्यक्तित्व....।
तभी बाहर से द्वार खटखटाया जाता है। एक बार नहीं....रुक-रुककर तीन-तीन बार, साथ ही अनुनय भरी आवाज भी उभरती है, द्वार खोलो बेटा....सीमू बेटे ! थोड़ा लिहाज करो मेरा, मैं तुम्हारा पिता हूँ बेटा ! फिर नाराज भी नहीं हूँ। (थोड़ा रुककर स्वर-पुन: उभरता है) बेटे ! तुमने जो कहा मैंने नादानी समझकर उसे भुला दिया है....अब तुम भी गुस्सा थूक दो। देखो आज मैं तुम्हारे कारण ही ऑफिस भी नहीं गया। लंबे खिंचे एक तरफा संवाद के बाद भी जब सीमांत कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्ति करता तो द्वार पुन: खटखटाया जाता है। सीमांत की एकाग्रता खटखटाहट और संवाद भंग नहीं कर पाते, उसकी उंगलियों में फंसा बुरुश अब घड़ी की आकृति संवार रहा होता है।
ढिबरी जितनी बड़ी घड़ी अब समय बताने की तैयार होती है जबकि हॉलनुमा कमरे की दीवार पर टंगी घड़ी समय बजा रही होती है, तीन बजकर सत्रह मिनट और कुछ सेकेंड। वह खटखटाहट के पुन: उभरने पर द्वार की ओर देखता है। उसके मुखड़े पर छाई गंभीरता में अब तनाव घुलने लगता है....। वह बुरुश उठाकर बॉक्स में रखता है। इसके बाद उंगलियों को तौलिये में पोंछता हुआ कुछ सोचने लगता है, तब उसकी आँखों में संतुष्टि के भाव दिखते हैं जब वह खड़े होकर चित्र को समग्रता से देख रहा होता है। लगभग सवा दो हाथ चौड़ा और चार हाथ लंबा चित्र, उतना विशाल लगता है, मानों जितने गांधी अब शेष बचे हों।
कुंडी सरकने की आवाज़ होती है और पल्ले खुल जाते हैं। सामने ‘पिताजी’ मुस्कुराते खड़े दिखे तो उसे तनिक भी अट्पटा नहीं लगा। न उसके मुखड़े पर अपराध बोध के भाव होते हैं न आक्रोश के, ऐसा लगता है कि उस पर तीन घंटे तक कुंडी खटकने (ग्यारह बार में) और असीम खुशामदी का कोई प्रभाव नहीं होता। दरअसल उसके मुखड़े पर किसी प्रकार की संवेदना नहीं होती। बिल्कुल सपाट सा प्रश्न गूंजता है, आपको मेरी चिंता क्यों बाप जी ! लगभग पांच वर्ष मेरे बगैर रहे हैं आप, कुछ घंटों में मिलने के लिए इतना अधीर क्यों हो उठते हैं ? प्रभुनाथ सिंह कुछ बोलना चाहते हैं परन्तु वो अवसर नहीं देता, अं ऽ ऽ हं ऽ ऽ मैं आत्महत्या नहीं करूंगा इसलिए यदि दो चार दिन भी यह द्वार अन्दर से बंद मिले तो आपको घबराने की जरूरत नहीं। वह द्वार की ओर इशारा करता है और जारी रहता है, मैं सच कह रहा हूँ बाप जी ! मैं कितना भी निराश हो जाऊं लेकिन जान नहीं दूंगा, कम से कम तब तक जब तक एक बार उस स्त्री को भर आंख देख नहीं लेता जिसने मुझे पैदा किया है। हां ऽ ऽ मैं मिलना चाहता हूं उससे, मां से ऽ ऽ....हां अपनी जन्मदात्री से ऽ ऽ....वह इतनी जोर से चिल्लाता है कि प्रभुनाथ सिंह बाप होकर भी कांप उठते हैं। नीचे रोमी कुत्ता भूंकने लगता है।
प्रभुनाथ सकते में खड़े होते है....बिल्कुल गूंगे बने। वह भी अब क्रोध से मुक्त हो चुका होता है, उसकी मुट्ठियां भिंचीं लेकिन कांपती लगती हैं और मुखड़े पर वेदना उतर आती है। वह पल-पल सहज होता दिखता है। जबकि प्रभुनाथ असहज होते, कुत्ते के भूंकने की आवाज अभी भी आ रही होती है। कुत्ता ऊपर नहीं आता शायद बंधा होगा।
प्रभुनाथ माथे पर पसीने की बूंदें लिए खडे़ होते हैं, उनके होंठ कई बार फड़कते हैं लेकिन बोल कुछ नहीं पाते। जबकि सीमांत एक झटके से पीछे मुड़ता है और सीटी बजाता हुआ उन सीढ़ियों की ओर बढ़ता है जो छत की ओर गयी होती हैं। सीमांत जहाँ निर्द्वन्द्व होकर जा रहा होता है वही उसके जाने के बाद प्रभुनाथ के चेहरे पर बेबशी छा चुकी होती है, वे कभी खुले द्वार तो कभी छत पर जाती सीढ़ियों की ओर देखते हैं, जिस द्वार को खुलवाने में उन्होंने घंटे लगाए थे उसके भीतर अब वे नहीं जाना चाहते। कुछ देर सिर झुकाकर सोचते रहने के बाद वे उदास मन लिए नीचे लौट आते हैं। आते समय उनके पीछे उनकी अफसरी भी आती है।
ये प्रभुनाथ का शयनकक्ष है....आई.ए.एस. बनने के बाद श्वसुर द्वारा दिए गए उपहार, अर्थात् हवेलीनुमा मकान का सबसे खूबसूरत शयनकक्ष। वे मसनद की टेक लेकर कालीन पर बैठे हैं और बगल में हैं उनकी धर्मपत्नी मधुरिमां देवी, दोनों लोग गंभीर होने के साथ चिंतित भी लग रहे होते हैं। लेकिन उनमें से कोई चिन्ता प्रकट नहीं करता, बल्कि अपने-अपने नजरिये से शून्य को घूर रहा होता है।
कुछ देर बाद प्रभुनाथ चित्त लेट जाते हैं। पहले आँखें बन्द करते हैं, फिर मुखरित होते हैं, मधु ! अवश्य ही हमारे प्यार-दुलार में खोट रह गई अन्यथा अपना सीमू ऐसा न था। इकलौता होकर भी इकलौतेपन की आदतें इसमें कहां थीं ? कभी खिलौने के लिए जिद करता तो गन-मोटर-हवाई जहाज नहीं, मेरे कम्प्यूटर का माउस मांगता सो हमने सोचा कि चलो जीवन सफल हो गया। मधुरिमा देवी मौन नहीं तोड़तीं। शून्य में देखते हुए उनका सोचना जारी रहता है। उधर भावनात्मक प्रवाह में प्रभुनाथ आगे बहते हैं, विद्यालय पढ़ना भेजा तो कभी शिकायत नहीं आयी। जब आया तो प्रशस्ति पत्र आया। अमेरिका भेजा तो पहले वर्ष ही खबर मिली कि बड़ी-बड़ी कंपनियां उसे अनुबंधित करना चाह रही हैं। दरअसल हम ये जान ही नहीं पाए कि सीमू कब तक बच्चा था और कब अपने पैरों पर खड़ा कम्प्यूटर इंजीनियर, वेब डिजाइनर और बड़ा चित्रकार बन गया। तभी मधुरिमा देवी उनको झिड़कती हैं, यह सब तुम अभी क्यों याद रहे हो ! तुम्हारी भावुकता और इतिहास का पंवारा समस्या का हल थोड़े ही है ?
प्रभुनाथ आंख उठाकर उनकी ओर देखते हैं.....बैठते हैं तो कालीन के कुछ मुलायम रोयें उनके लकदक सफेद कुर्ते पर चिपके मिलते हैं, रोओं की ओर प्रभुनाथ का ध्यान नहीं जाता। आगे वे घुटनों में मुंह छिपाते हुए पुन: अपनी रौ में बह उठते हैं, मैं इस समय दुनिया का सबसे दु:खी प्राणी हूं मधु ! और शायद तुम भी (उनके शायद लगाने पर मधुरिमा को गुस्सा नहीं आता), ये कहता तो मैं इसके लिए हेलीकॉप्टर तक खरीदने को तैयार हो जाता, समाज सेवा ही करना चाहे तो दो-चार दर्जन संस्थाएं रजिस्टर्ड करा दूं...., कह भी चुका हूं कि ऊपरी मंजिल में तुम कला दीर्घा बनवा लो। देश-विदेश के कलाकारों को आमंत्रित करो। सेमिनार आयोजित करो.... मैं तुम्हारे लिए पैसे की व्यवस्था करूंगा। आगे वे थोड़ा और भावुक होते हैं, अरे ! ये ससुरा न कहे कि, मैंने पिताजी के नाम पर पहले ही धर्मनाथ फाउण्डेशन बनवा दिया है। इतना पैसा उसमें जुटा दूंगा कि ब्याज भी ये नहीं खर्च कर पाएगा।
उनके बोलते जाने का मधुरिमा देवी पर कोई असर नहीं होता। असर न होते देख उनकी झुंझलहाट बढ़ जाती है, मैं इसको कितना समझाता हूं इसके पल्ले कुछ पड़ता ही नहीं, बस एक ही घटिया जिद....रट्टू तोते की तरह बस एक ही रट, एक ही रट, पता नहीं इस परिवार के भविष्य में क्या होना लिखा है। हे भगवान हमें रास्ता दिखाओ ऽऽऽ। घुटनों में मुंह छुपाने के बाद वे भोकार छोड़कर रोने लगते हैं। माहौल अधिक वेदनापूर्ण हो उठता है जब मधुरिमा भी रोने लगती हैं। रोने में उनकी सिसकियां लंबी होती हैं।
रात का तीसरा पहर...। मधुरिमा देवी नींद की गोली खाकर सो चुकी होती हैं। नौकरी को बहुत पहले विश्राम के लिए जाने का आदेश दे चुके प्रभुनाथ की आँखों में नींद नहीं होती। इस समय वह बैठक कक्ष में चहलकदमी कर रहे होते हैं। भव्य बैठक कक्ष...दीवार में बना झरना बंद होता है अन्यथा सुमधुर कलकल ध्वनि उनका साथ दे रही होती, उनके मुखड़े पर छाया भाव देखकर प्रतीत होता है कि मन चिंतित होता है....बेचैन भी। अंत तक वे डेढ़ दर्जन बार सीमांत के कमरे तक जा चुके होते हैं और सत्रह बार टी.वी. खोल-बन्द। उनको लगता है कि यदि कमरे में प्रकाश है तो निश्चित रूप से सीमांत जाग रहा होगा और सीमांत के जगने की सम्भावना ही उनको सोने नहीं दे रही होती।
चित्र में गांधी हैं.....जिनके बायें कन्धे पर कुर्ता धोती पहने एक मासूम बालक बैठा है, दूसरे को वे कनियां ले रखे हैं। गांधी के बायें हाथ में दो घुटारी तख्तियां और बस्ते भी हैं जिनको देखने से वे बच्चों को प्राथमिक विद्यालय ले जा रहे लगते हैं। गांधी प्रफुल्लित मन से ठीक सामने रास्ते को देख रहे होते हैं, जबकि एकाग्रचित्त सीमांत उनकी कमर में टंगी घड़ी को, जिसे छू पाने के लिए कनियां वाला बच्चा झुका जा रहा होता है। घड़ी अभी अधूरी होती है, सूइयों के बिना घड़ी देखने में उतनी ही अधूरी लगती है जितना घड़ी के बिना अधूरा लगता गांधी का व्यक्तित्व....।
तभी बाहर से द्वार खटखटाया जाता है। एक बार नहीं....रुक-रुककर तीन-तीन बार, साथ ही अनुनय भरी आवाज भी उभरती है, द्वार खोलो बेटा....सीमू बेटे ! थोड़ा लिहाज करो मेरा, मैं तुम्हारा पिता हूँ बेटा ! फिर नाराज भी नहीं हूँ। (थोड़ा रुककर स्वर-पुन: उभरता है) बेटे ! तुमने जो कहा मैंने नादानी समझकर उसे भुला दिया है....अब तुम भी गुस्सा थूक दो। देखो आज मैं तुम्हारे कारण ही ऑफिस भी नहीं गया। लंबे खिंचे एक तरफा संवाद के बाद भी जब सीमांत कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्ति करता तो द्वार पुन: खटखटाया जाता है। सीमांत की एकाग्रता खटखटाहट और संवाद भंग नहीं कर पाते, उसकी उंगलियों में फंसा बुरुश अब घड़ी की आकृति संवार रहा होता है।
ढिबरी जितनी बड़ी घड़ी अब समय बताने की तैयार होती है जबकि हॉलनुमा कमरे की दीवार पर टंगी घड़ी समय बजा रही होती है, तीन बजकर सत्रह मिनट और कुछ सेकेंड। वह खटखटाहट के पुन: उभरने पर द्वार की ओर देखता है। उसके मुखड़े पर छाई गंभीरता में अब तनाव घुलने लगता है....। वह बुरुश उठाकर बॉक्स में रखता है। इसके बाद उंगलियों को तौलिये में पोंछता हुआ कुछ सोचने लगता है, तब उसकी आँखों में संतुष्टि के भाव दिखते हैं जब वह खड़े होकर चित्र को समग्रता से देख रहा होता है। लगभग सवा दो हाथ चौड़ा और चार हाथ लंबा चित्र, उतना विशाल लगता है, मानों जितने गांधी अब शेष बचे हों।
कुंडी सरकने की आवाज़ होती है और पल्ले खुल जाते हैं। सामने ‘पिताजी’ मुस्कुराते खड़े दिखे तो उसे तनिक भी अट्पटा नहीं लगा। न उसके मुखड़े पर अपराध बोध के भाव होते हैं न आक्रोश के, ऐसा लगता है कि उस पर तीन घंटे तक कुंडी खटकने (ग्यारह बार में) और असीम खुशामदी का कोई प्रभाव नहीं होता। दरअसल उसके मुखड़े पर किसी प्रकार की संवेदना नहीं होती। बिल्कुल सपाट सा प्रश्न गूंजता है, आपको मेरी चिंता क्यों बाप जी ! लगभग पांच वर्ष मेरे बगैर रहे हैं आप, कुछ घंटों में मिलने के लिए इतना अधीर क्यों हो उठते हैं ? प्रभुनाथ सिंह कुछ बोलना चाहते हैं परन्तु वो अवसर नहीं देता, अं ऽ ऽ हं ऽ ऽ मैं आत्महत्या नहीं करूंगा इसलिए यदि दो चार दिन भी यह द्वार अन्दर से बंद मिले तो आपको घबराने की जरूरत नहीं। वह द्वार की ओर इशारा करता है और जारी रहता है, मैं सच कह रहा हूँ बाप जी ! मैं कितना भी निराश हो जाऊं लेकिन जान नहीं दूंगा, कम से कम तब तक जब तक एक बार उस स्त्री को भर आंख देख नहीं लेता जिसने मुझे पैदा किया है। हां ऽ ऽ मैं मिलना चाहता हूं उससे, मां से ऽ ऽ....हां अपनी जन्मदात्री से ऽ ऽ....वह इतनी जोर से चिल्लाता है कि प्रभुनाथ सिंह बाप होकर भी कांप उठते हैं। नीचे रोमी कुत्ता भूंकने लगता है।
प्रभुनाथ सकते में खड़े होते है....बिल्कुल गूंगे बने। वह भी अब क्रोध से मुक्त हो चुका होता है, उसकी मुट्ठियां भिंचीं लेकिन कांपती लगती हैं और मुखड़े पर वेदना उतर आती है। वह पल-पल सहज होता दिखता है। जबकि प्रभुनाथ असहज होते, कुत्ते के भूंकने की आवाज अभी भी आ रही होती है। कुत्ता ऊपर नहीं आता शायद बंधा होगा।
प्रभुनाथ माथे पर पसीने की बूंदें लिए खडे़ होते हैं, उनके होंठ कई बार फड़कते हैं लेकिन बोल कुछ नहीं पाते। जबकि सीमांत एक झटके से पीछे मुड़ता है और सीटी बजाता हुआ उन सीढ़ियों की ओर बढ़ता है जो छत की ओर गयी होती हैं। सीमांत जहाँ निर्द्वन्द्व होकर जा रहा होता है वही उसके जाने के बाद प्रभुनाथ के चेहरे पर बेबशी छा चुकी होती है, वे कभी खुले द्वार तो कभी छत पर जाती सीढ़ियों की ओर देखते हैं, जिस द्वार को खुलवाने में उन्होंने घंटे लगाए थे उसके भीतर अब वे नहीं जाना चाहते। कुछ देर सिर झुकाकर सोचते रहने के बाद वे उदास मन लिए नीचे लौट आते हैं। आते समय उनके पीछे उनकी अफसरी भी आती है।
ये प्रभुनाथ का शयनकक्ष है....आई.ए.एस. बनने के बाद श्वसुर द्वारा दिए गए उपहार, अर्थात् हवेलीनुमा मकान का सबसे खूबसूरत शयनकक्ष। वे मसनद की टेक लेकर कालीन पर बैठे हैं और बगल में हैं उनकी धर्मपत्नी मधुरिमां देवी, दोनों लोग गंभीर होने के साथ चिंतित भी लग रहे होते हैं। लेकिन उनमें से कोई चिन्ता प्रकट नहीं करता, बल्कि अपने-अपने नजरिये से शून्य को घूर रहा होता है।
कुछ देर बाद प्रभुनाथ चित्त लेट जाते हैं। पहले आँखें बन्द करते हैं, फिर मुखरित होते हैं, मधु ! अवश्य ही हमारे प्यार-दुलार में खोट रह गई अन्यथा अपना सीमू ऐसा न था। इकलौता होकर भी इकलौतेपन की आदतें इसमें कहां थीं ? कभी खिलौने के लिए जिद करता तो गन-मोटर-हवाई जहाज नहीं, मेरे कम्प्यूटर का माउस मांगता सो हमने सोचा कि चलो जीवन सफल हो गया। मधुरिमा देवी मौन नहीं तोड़तीं। शून्य में देखते हुए उनका सोचना जारी रहता है। उधर भावनात्मक प्रवाह में प्रभुनाथ आगे बहते हैं, विद्यालय पढ़ना भेजा तो कभी शिकायत नहीं आयी। जब आया तो प्रशस्ति पत्र आया। अमेरिका भेजा तो पहले वर्ष ही खबर मिली कि बड़ी-बड़ी कंपनियां उसे अनुबंधित करना चाह रही हैं। दरअसल हम ये जान ही नहीं पाए कि सीमू कब तक बच्चा था और कब अपने पैरों पर खड़ा कम्प्यूटर इंजीनियर, वेब डिजाइनर और बड़ा चित्रकार बन गया। तभी मधुरिमा देवी उनको झिड़कती हैं, यह सब तुम अभी क्यों याद रहे हो ! तुम्हारी भावुकता और इतिहास का पंवारा समस्या का हल थोड़े ही है ?
प्रभुनाथ आंख उठाकर उनकी ओर देखते हैं.....बैठते हैं तो कालीन के कुछ मुलायम रोयें उनके लकदक सफेद कुर्ते पर चिपके मिलते हैं, रोओं की ओर प्रभुनाथ का ध्यान नहीं जाता। आगे वे घुटनों में मुंह छिपाते हुए पुन: अपनी रौ में बह उठते हैं, मैं इस समय दुनिया का सबसे दु:खी प्राणी हूं मधु ! और शायद तुम भी (उनके शायद लगाने पर मधुरिमा को गुस्सा नहीं आता), ये कहता तो मैं इसके लिए हेलीकॉप्टर तक खरीदने को तैयार हो जाता, समाज सेवा ही करना चाहे तो दो-चार दर्जन संस्थाएं रजिस्टर्ड करा दूं...., कह भी चुका हूं कि ऊपरी मंजिल में तुम कला दीर्घा बनवा लो। देश-विदेश के कलाकारों को आमंत्रित करो। सेमिनार आयोजित करो.... मैं तुम्हारे लिए पैसे की व्यवस्था करूंगा। आगे वे थोड़ा और भावुक होते हैं, अरे ! ये ससुरा न कहे कि, मैंने पिताजी के नाम पर पहले ही धर्मनाथ फाउण्डेशन बनवा दिया है। इतना पैसा उसमें जुटा दूंगा कि ब्याज भी ये नहीं खर्च कर पाएगा।
उनके बोलते जाने का मधुरिमा देवी पर कोई असर नहीं होता। असर न होते देख उनकी झुंझलहाट बढ़ जाती है, मैं इसको कितना समझाता हूं इसके पल्ले कुछ पड़ता ही नहीं, बस एक ही घटिया जिद....रट्टू तोते की तरह बस एक ही रट, एक ही रट, पता नहीं इस परिवार के भविष्य में क्या होना लिखा है। हे भगवान हमें रास्ता दिखाओ ऽऽऽ। घुटनों में मुंह छुपाने के बाद वे भोकार छोड़कर रोने लगते हैं। माहौल अधिक वेदनापूर्ण हो उठता है जब मधुरिमा भी रोने लगती हैं। रोने में उनकी सिसकियां लंबी होती हैं।
रात का तीसरा पहर...। मधुरिमा देवी नींद की गोली खाकर सो चुकी होती हैं। नौकरी को बहुत पहले विश्राम के लिए जाने का आदेश दे चुके प्रभुनाथ की आँखों में नींद नहीं होती। इस समय वह बैठक कक्ष में चहलकदमी कर रहे होते हैं। भव्य बैठक कक्ष...दीवार में बना झरना बंद होता है अन्यथा सुमधुर कलकल ध्वनि उनका साथ दे रही होती, उनके मुखड़े पर छाया भाव देखकर प्रतीत होता है कि मन चिंतित होता है....बेचैन भी। अंत तक वे डेढ़ दर्जन बार सीमांत के कमरे तक जा चुके होते हैं और सत्रह बार टी.वी. खोल-बन्द। उनको लगता है कि यदि कमरे में प्रकाश है तो निश्चित रूप से सीमांत जाग रहा होगा और सीमांत के जगने की सम्भावना ही उनको सोने नहीं दे रही होती।
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